झांँसी से नेहा श्रीवास के साथ पुष्पेंद्र श्रीवास की रिपोर्ट..
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झाँसी ! आखिर समाज सेवा है क्या? उसका स्वरूप क्या है? यह आज तक कोई नहीं समझ पाया। हमें तो अपने धर्म ग्रंथों से यही सन्देश पाया है की सहृदय, दयालु, परोपकारी और दानशील बनो-अब यह पता नहीं है की इससे समाजसेवा होती है की नहीं।
नगर में आए दिन कहीं न कहीं सुंदरी प्रतियोगिता होती है तो कहीं नाच-गाने के कार्यक्रमों को ही प्रतियोगिता के रूप में पेश किया जाता है जिसके विजेता अपना अगला कार्यक्रम ‘समाज सेवा” बताते हैं। कई बडे लोग अपने नाम के आगे समाज सेवी का परिचय लगवा रहे है तो कुछ बुद्धिजीवी भी और कुछ नहीं तो अपने नाम के आगे ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ शब्द लगवाकर अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। कहा जाता है जो कुछ नहीं कर सकता वह राजनीति में चला जाता है और जो नहीं कर सकता वह समाज सेवा में चला जाता है। सबसे बड़ी बात तो यह हो गई है की अब समाज सेवा के लिए धन जुटाने हेतु प्रतिष्ठित खेलों के मैच और नाच-गाने के कार्यक्रम भी आयोजित किये जाने लगे हैं-उनसे कितनी सेवा होती है कभी पता ही नहीं चलता।
कहते भी हैं कि नेकी कर और दरिया में डाल। अगर हम अपनी बात को साफ ढंग से कहें तो उसका आशय यही है कि व्यक्ति की सेवा तो समझ में आती है पर समाज सेवा एक ऐसा शब्द है जो कतिपय उन कार्यों से जोडा जाता है वह किये तो दूसरों के जाते हैं पर उसमें कार्यकर्ता की अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढाने में सहायक होते है- और कहीं न कहीं तो इसके लिए उनको आर्थिक फायदा भी होता है।
आजकल टीवी और अखबारों में तथाकथित समाज सेवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम आते रहते हैं। अगर उनकी कुल गणना की जाये तो शायद हमारे समाज को विश्व का सबसे ताक़तवर समाज होना चाहिऐ पर ऐसा है नहीं क्योंकि उनसे कोई व्यक्ति लाभान्वित नहीं होता जो समाज की एक भौतिक और वास्तविक इकाई होता है। समाज सेवा बिना पैसे के तो संभव नहीं है और समाज सेवा के नाम पर कई लोगों ने इसलिए अपनी दुकाने खोल रखीं है ताकि धनाढ्य वर्ग के लोगों की धार्मिक और दान की प्रवृति का दोहन किया जा सके। कई लोग समाज सेवा को राजनीति की सीढियां चढ़ने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। आजकल समाज सेवा की नाम पर जो चल था है उसे देखते हुए तो अब लोग अपने आपको समाज सेवक कहलाने में भी झिझकने लगे हैं। समाज सेवा एक फैशन हो गया है।
अगर देखा जाये तो समाज सेवा अब दाम देने और लेने वाले की बीच दलाली का काम हो गया है जिसमें उससे जुडे लोग कमीशन के रूप में कहीं थोडी तो कहीं पूरी की पूरी रकम डकार लेते हैं।